Monday, 22 May 2017 11:00 pm
Admin(चौधरी सलमान नदवी की क़लम से)
आज से 30 साल पहले 22 मई 1987 को हाशिमपुरा में पी०ए०सी० के 19 सिपाहियों ने 42 बेक़ुसूर मुसलमानों को बड़ी ही बेरहमी से मौत के घाट उतार कर गंगनहर में फेंक दिया।
इस मामले में लगभग 28 साल मुक़दमा चला इस दौरान 19 में से 3 मुल्ज़िमों की मौत भी हो गई,
बचे हुए 16 मुल्ज़िमों को दिल्ली की तीस हज़ारी कोर्ट ने सन्देह के आधार पर बाइज़्ज़त बरी कर दिया।
अब सवाल ये है कि कोर्ट अगर सन्देह के आधार पर बरी कर सकता है तो सन्देह के आधार पर उच्चस्तरीय जांच क्यों नहीं करवा सकता?
आख़िर इस बात में तो कोई सन्देह नहीं है कि 42 निर्दोष मुसलमानों की बेरहमी से हत्या हुई है।
अगर पी०ए०सी० के सिपाहियों ने ये जघन्य नरसंहार नहीं किया तो कौन व्यक्ति या संगठन इतना ताक़तवर था जिसने पी०ए०सी० के ट्रक में 19 सिपाहियों की मौजूदगी में इतने भयानक नरसंहार को अंजाम दिया और किसी भी सिपाही को खरोंच तक नहीं आई?
क्या ये जांच का विषय नहीं है?
क्या नरसंहार पीड़ित परिवारों को न्याय देना कोर्ट और सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं है?
क्या सब का साथ सबका विकास का नारा देने वाली सरकार को सबके साथ इंसाफ नहीं करना चाहिए?
क्या मुसलमानों का हितैषी होने का दम भरने वाली उत्तर प्रदेश की पूर्ववर्ती सपा सरकार को उच्च अदालत में इस मुक़दमे की पैरवी नहीं करनी चाहिए थी?
क्या सिर्फ मुआवज़ा देने भर से पीड़ितों को न्याय मिल गया?
क्या दोषियों को सज़ा देना सरकार व कोर्ट के लिए ज़रूरी नहीं है?
(लेखक ऑल इण्डिया मजलिस-ए-इत्तिहादुल मुस्लिमीन (उ०प्र०) के प्रदेश कार्यसमिति सदस्य हैं)