Saturday, 04 September 2021 2:11
G.A Siddiqui
लखनऊ, 4 सितंबर। रिहाई मंच ने पुलिस की कार्यशैली पर सवाल उठाते हुए कहा कि दिल्ली दंगा हो या उत्तर प्रदेश सीए आंदोलन का पुलिसिया दमन, सरकारी मशीनरी के दुरूपयोग की गंध हर जगह मौजूद है।
रिहार्इ मंच अध्यक्ष मुहम्मद शुऐब ने कहा कि दिल्ली दंगों की जांच को लेकर अदालत द्वारा की जाने वाली टिप्पणियां हों या उत्तर प्रदेश के जनपद मऊ में आंदोलनकारियों पर लगाए गया रासुका का मामला, सत्ता के इशारे पर बेगुनाहों को फंसाने और दोषियों को बचाने की दासतान बन चुकी है।
उन्होंने कहा कि दिल्ली दंगों की सुनवाई करते हुए अदालतों ने कई बार जांच अधिकारियों के खिलाफ प्रतिकूल टिप्पणियां की हैं। उन्होंने आम आदमी पार्टी के पार्षद ताहिर हुसैन के भाई व दो अन्य को आरोप मुक्त करते हुए दिल्ली की एक अदालत ने जो टिप्पणियां की हैं वह सत्ता के इशारे पर पुलिस द्वारा बेगुनहों को फंसाने की साज़िश की पोल खोलने के लिए काफी है। अदालत ने दिल्ली पुलिस पर जांच में जनता के धन का दुरूपयोग कहते हुए टिप्पणी किया “जांच एजेंसी ने केवल अदालत की आंखों पर पट्टी बांधने की कोशिश की है .. जब इतिहास दिल्ली में विभाजन के बाद के सबसे भीषण साम्प्रदायिक दंगों को देखेगा, तो नए वैज्ञानिक तरीकों का इस्तेमाल करके सही जांच करने में जांच एजेंसी की विफलता निश्चित रूप से लोकतंत्र के रखवालों को पीड़ा देगी।”
मुहम्मद शुऐब ने करीब ग्यारह महीने से दिल्ली दंगों के आरोप में जेल में कैद, उमर खालिद का उल्लेख करते हुए कहा कि उमर को उस एफआईआर के आधार पर गिरफ्तार किया गया जिसमें उन्हें पहले ही ज़मानत मिल चुकी थी। उनकी संलिप्पतता का आधार जिस भाषण को बनाया गया था पुलिस के पास उसकी मूल फुटेज ही नहीं थी, और पुलिस के पास जो सम्पादित फुटेज थी उसे भाजपा आईटी सेल के अमित मालवीय के ट्वीट से लिया गया था और उसी के आधार पर उमर खालिद पर यूएपीए की गंभीर धाराएं लगा दी गयीं।
रिहाई मंच अध्यक्ष ने कहा कि दिल्ली पुलिस की तर्ज पर ही उत्तर प्रदेश सरकार के इशारे पर पहले आंदोलनकारियों के खिलाफ अंधाधुंध बल प्रयोग किया गया, गंभीर धाराओं में मुकदमे कायम किए, सम्पत्ति जब्ती के नाम पर आरोपियों को परेशान किया और अदालत से ज़मानत मिलने पर रासुका लगाकर कैद रखने का बहाना ढूंढ लिया था।
उन्होंने कहा कि सत्ता के इशारे पर जांच एजेंसियों का इस तरह से नतमस्तक हो जाना लोकतांत्रिक व्यवस्था और जनता के संवैधानिक अधिकारों पर कुठाराघात ही नहीं बल्कि लोकतंत्र के भविष्य पर ही सवालिया निशान लगाती हैं।