Monday, 02 April 2018 11:05 AM
Chaudhary Salman Nadwi
(चौधरी सलमान नदवी की क़लम से)
ये तस्वीर देखने के बाद एक साल पहले की घटना याद आ गई होगी?
9 अप्रैल 2017 को श्रीनगर संसदीय सीट पर उपचुनाव था,
हुर्रियत के सभी धड़ों ने चुनाव बहिष्कार किया उसके बावजूद शॉल की बुनाई का काम कर परिवार का पेट पालने वाले 'फ़ारूक़ अहमद डार' लोकतंत्र में अपनी ज़िम्मेदारी निभाने निकल पड़े, डार ने वोट डाला और एक रिश्तेदार के अंतिम संस्कार में शामिल होने चले गए।
उसका इनाम ये मिला कि हमारी सेना के होनहार मेजर 'लीतुल गोगोई' ने डार को घर आते समय रोक लिया और पत्थरबाज़ कह कर जम कर 'फ़ारूक़' की पिटाई की और फटे-नुचे फेरन में उन्हें जीप के बोनट पर बांध कर 28 गांवों में घुमाया।
सेना ने डार पर 'पत्थरबाज़' होने का आरोप लगाया जो कि पुलिस की जाँच में झूठा साबित हुआ।
इसके बाद ये अफवाह उड़ी कि 'मानवाधिकार आयोग' ने डार को 10 लाख की आर्थिक सहायता दी है,
लेकिन डार कहते हैं कि उन्हें 10 रुपया भी नहीं मिला।
इस घटना के बाद से 'फ़ारूक़ अहमद डार' अवसादग्रस्त हैं,
बहिष्कृत और बेरोज़गार हैं।
इस हादसे के बाद डार की मानसिक और आर्थिक दोनों स्थिति ख़राब है,
जो व्यक्ति महीने के 3000 कमाता था आज 1000 रुपए कमा पाना भी उसके लिए मुश्किल हो रहा है।
सवाल ये है कि फ़ारूक़ अहमद डार की इस स्थिति का ज़िम्मेदार कौन है?
सेना या अलगाववादी?
या फिर दोनों?
क्या लोकतंत्र पर विश्वास करना डार की ग़लती थी?
निर्दयी मेजर गोगोई को सम्मानित करने वाली सरकार और सेना ने डार की स्थिति सुधारने के लिए क्या किया?
(लेखक ऑल इण्डिया मजलिस-ए-इत्तिहादुल मुस्लिमीन उ०प्र० के राज्य कार्यकारिणी सदस्य हैं)